क्रांति के बारे में अरस्तू और मार्क्स

 अरस्तू के समय से लगभग दो हजार दो सौ वर्ष बाद क्रांति की सबसे महत्वपूर्ण व्याख्या मार्क्स , उसके सहयोगियों और अनुयायियों ने प्रस्तुत की । यह बात महत्तपूर्ण है। कि जहां अरस्तू का दृष्टकोण क्रांति को एक बाधा मानते हुए उसके निवारण के उपाय ढूंढता है। , वहा मार्क्सवाद दृष्टिकोण क्रांति को प्रगति का संकेत मानते हुए उसे बढ़ावा देना चाहता है।

मार्क्सवादी क्रांति को सामाजिक परिवर्तन का अनिवार्य माध्यम मानते है। इसके तहत सामंत वाद से समाजवाद के युग में प्रवेश के लिए दो क्रांति जरूरी है :

० बर्जुवा क्रांति 

० सर्वहारा क्रांति

एक रूढ़िवादी के नाते अरस्तू क्रांति के विरूद्ध था जबकि एक अमूल - परिवर्तनवादी के नाते मार्क्स क्रांति का प्रबल समर्थक था । दोनों यह मानते थे कि समाज में विषमता की अनुभूति क्रांति को जन्म देती है। 

अरस्तू स्वयं विषमता का समर्थक था अत: उसने ऐसे उपायों पर बल दिया जिससे लोग समानता की मांग ना उठाएं , और क्रांति की चिंगारी प्रज्वलित ना हो पाए। इसके विपरित मार्क्स ने विषमता और सामाजिक अन्याय का अंत करने के लिए उत्पीड़ित वर्ग को क्रांति की प्रेरणा दी।

इस तरह अरस्तू और मार्क्स के क्रांति - सिद्धांत भिन्न भिन्न युगों की भिन्न भिन्न मांगे पूरी करने के लिए रखे गए , और ये भिन्न भिन्न दृष्टिकोण पर आधारित है।

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