Indian Constitution Amendment
संविधान के भाग 20 में अनुच्छेद 368 में संसद को सविंधान एव इसकी व्यवस्था में संसोधन करने का अधिकार दिया गया है यह प्रावधान करता है की संसद अपनी संवैधानिक सकती का प्रयोग करते हुए इस सविधान के किसी उपबंध का परिवर्धन ,परिवर्तन या निरसन करने के रूप में संसोधन कर सकती है |
संकरी प्रसाद मामले (1951) में पहले संसोधन अधिनियम (1951) की संविधानिक वैधता को चुनौती दी गयी जिसमे सम्पति के अधिकार में कटौती की गयी थी | सर्वोचये न्यायालय ने व्यवस्था दी की संसद में अनुच्छेद 368 द्वारा संसोधन की शक्ति के अंतर्गत ही मौलिक अधिकार में संसोधन करने की सकती अंतर्निहित है | अनुच्छेद 13 में ' विधि ' शब्द के अंतर्गत सिर्फ सामान विधि ही आती है न की सविधान संसोधन | यहाँ ये जानना जरुरी है की अनुच्छेद 13 क्या कहता है | इसके अनुसार कोई भी विधि जो मौलिक अधिकार को असंगत या उनका अल्पीकरण करता है वह विधि शून्य हो जाये गई |
लेकिन गोलकनाथ मामले (1967) सर्वोच्ये न्यायालय ने अपनी पहली वाली श्थिति बदल दी | सर्वोचये न्यायलय ने व्यवस्था दी की मौलिक अधिकार को लोकोत्तर तथा अपरिवर्तन स्थान प्राप्त है , इसीलिए संसद न तो मौलिक अधिकार वापिस ले सकती है न ही परिवर्तन कर सकती है और संविधानिक संसोधन भी अनुच्छेद 13 के आश्यो के तहत एक कानून है |
गोलकनाथ मामले की प्रतिकिर्या में संसद ने 24वां संसोधन अधिनियम (1971) अधिनियमित किया | इस अधिनियम ने अनुच्छेद 13 और 368 में संसोधन किया और संसद को यह अधिकार दिया की संसद को मौलिक अधिकार को सिमित करने तथा किसी मौलिक अधिकार को वापिस लेने की सकती है और ऐसा अधिनियम को अनुच्छेद 13 के तहत कानून नहीं माना जाए गए |
हलाकि केशवानंद भारतीय मामले (1973) में सर्वोचय न्यायालय ने गोलकनाथ मामले में अपने निर्णय को प्रत्यादिष्ट कर दिया तथा यह व्यवस्था दी की संसद मौलिक अधिकारों को सिमित कर सकती है अथवा अधिकार को वापिस ले सकती है | हलाकि सर्वोच्चय न्यायालय ने एक नयी व्यवस्था भी दिया ' सविधान की मूल ' संरचना का | इसने व्यवस्था दिया की अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद के संवैधनिक अधिकार उसे सविधान के मूल संरचना को ही बदलने का अधिकार नहीं देते दूसरे शब्दों में संसद मौलिक अधिकारों को सिमित नहीं कर सकता या वैसे मौलिक अधिकार को वापिस नहीं ले सकता जो सविधान के मूल संरचना से जुड़ी है |
मगर ये ताकत का नासा उफ़
पुन: न्यायपालिका द्वारा इस मूल संरचना के सिंद्धांत की प्रतिकिर्या में संसद ने 42वा संसोधन अधिनियमित किया | इस अधिनियम ने अनुच्छेद 368 को संसोधन कर यह घोसित किया की संसद की विधाई शक्ति की कोई सिमा नहीं है और किसी भी संविधान संसोधन को न्यायलय में चुनौती नहीं दी जा सकती |
मगर सर्वोचाय न्यायालय भी कम नहीं है
सर्वोचये न्यायालय ने मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में इस प्रावधान को अमान्य कर दिया क्योकि इसमें न्यायिक समीझा के लिए कोई स्थान नहीं था जो की संविधान की मूल संरचना में से एक है |
इस लेख को पढ़ने के लिए सुक्रिया
गुरुदेव मंडल


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